Ghazal – Kuch Aur Hi Hoti Hai

नज़ारा कुछ और होता है, नज़र कुछ और ही होती है
अल्फ़ाज़ कुछ और करें बयां, ख़्वाहिश कुछ और ही होती है

मंज़िलों की दुनिया में, हमसफ़र यूँ कैसे मिले
आज साथ चले जो दो कदम, कल राह वो जुदा होती है

वो कहता है तदबीर बढ़ा, नज़र में है बंदे मेरी
जहां चाहो बेइंतेहा, वो करम नहीं होती है

ये दुनिया उसकी ही है, हैं सब शर्तें भी उसी की
ज़ाहिर हो न हो कहता है, हर बात की वजह होती है

छुपा कर रख दिल में इसे, वहाँ पर कोहिनूर है ये
जो ख़्वाहिश ज़बां पे आए, तो बड़ी बेनूर होती है

जो पैमानों में मापी थी, सागर में नज़र आई थी
उनसे जाना की गहराई, निगाहों में भी होती है

चाहत के जवाब में चाहत, यूँ ले पाया है भला कौन
जाने वो गुफ़्तगू है क्या, जहाँ पे ये बात होती है

मर्ज़-ए-हस्ती भी वही हैं, और इलाज-ए-दर्द भी वही
रहूँ दूर या रहूँ करीब, एक कशमकश सी होती है

तासीर उनके हिज्र की बड़ी, यूँ ही गरम है “मुख़्तसर”
तन्हाई की आंच से बचो, तपिश और जवां होती है