ठंड में वो गुनगुनी धूप सा लगता है
जीने को नया बहाना सा लगता है
साँसों की तरह रहता है मुझ ही में वो
तन्हा आलम अब ख़त्म होता सा लगता है
शब महकती है उनके नाम से बेसबब
चाँद में वो ही रौशन हुआ सा लगता है
खामोशी में सुनता हूँ उनकी ही सदा
दिल हरसू उनसे रूबरू सा लगता है
मिल ही जाता है वो हर शक्ल-ओ-सूरत में
हर संगत में इबादत जैसा लगता है
कहना कुछ चाहूँ आ जाता है उनका ज़िक्र
मेरी बातों में एक सुरूर सा लगता है
उस झलक पे थमा मै ना था अकेला
मेरी याद, ग़म, वक़्त भी ठहरा सा लगता है
जिस्म की दूरी मिटाती नहीं रूह का चैन
खोना पाना लफ़्ज़ों का खेल सा लगता है
मुझ में शामिल है वो भी कहीं “मुख़्तसर”
ग़ैर होना बस जन्म का फ़ासला सा लगता है